मराठाओं की पहली महिला सेनापति जिन्होंने पेशवाओं को दी थी खुली चुनौती...
मराठा... ये शब्द सुनकर तुतारी, ढोल ताशा की धुन के साथ हर हर महादेव कानों में गुंज उठता है। मराठाओं ने भारत को विदेशी ताकतों से आज़ाद कराके यहां के चप्पे चप्पे पर केसरिया झंडा फहराने के लिए अपने प्राणों की आहुती दे दी। फिर जाहे वो छत्रपति शिवाजी महाराज हों, पेशवा बाजीराव हों या तानाजी मालुसरे।
ऐसे ही कई मराठा योद्धाओं की कहानियां हमने पढ़ी हैं, सुनी हैं और फ़िल्म या नाटक के रूप में देखी हैं। ग़ौरतलब है कि मराठाओं में सिर्फ़ वीर ही नहीं थे, वीरांगनाएं भी थीं। विदेशी ताकतों को हराने और मातृभूमि के लिए अपने प्राण त्यागने में महिलाएं भी पीछें नहीं थीं। दुख की बात है कि ऐसी कई वीरांगनाओं की कहानियां इतिहास की किताबों में ग़ुम हो गई हैं।
वक़्त की धूल की परत दर परत चढ़ती गई और इन वीरांगनाओं को लोग भूलते चले गए। बेहद ज़रूरी है इन शेरनियों की कहानियां कहना, सुनना। आज हम ऐसी ही एक वीरांगना की कहानी लेकर आए हैं जिसके शौर्य ने उसे मराठाओं की पहली महिला सेनापति बना दिया। वो स्त्री थी, उमाबाई खंडेराव दाभाड़े।
कौन थीं उमाबाई खंडेराव दाभाड़े?
उमाबाई खंडेराव दाभाड़े आज इतिहास में कहीं खो गई हैं लेकिन उन्होंने अपना नाम अमर कर दिया था। वे मराठा सेना का नेतृत्व करने वाली पहली मराठा महिला थीं। जनता की स्मृति में उन्हें दोबारा लाना, उनके बारे में बात होना बेहद ज़रूरी है। उनकी कहानी उन सब लोगों पर चोट है जिन्हें लगता है कि महिलाएं सिर्फ़ घर की चारदिवारी के लिए, अपने पति और बच्चों का ध्यान रखने के लिए बनी हैं।
उमाबाई का जन्म नासिक में देवराव ठोके के घर हुआ। देवराव ठोके देशमुख थे। The Better India के लेख के अनुसार, देशमुख वो व्यक्ति हुआ करता था जिसे राजा ने अपने राज्य में ज़मीन दे रखी हो। देशमुख अपने राज्य में रहने वालों की सुरक्षा के बदले कर वसूल सकता था।
छोटी सी उम्र में हो गई थी वीरांगना की शादी:
जैसा कि अमूमन उस दौर में होता था, उमाबाई का विवाह भी बेहद कम उम्र में खंडेराव दाभाड़े के साथ कर दिया गया। Feminism In India के लेख के अनुसार, खंडेराव दाभाड़े छत्रपति साहू के सेनापति थे। खंडेराव दाभाड़े के पिता, येसाजी शिवाजी के अंगरक्षक थे। उमाबाई उनकी सबसे छोटी पत्नी थीं। इसके बावजूद भी उनमें साहस की कमी नहीं आई और न ही आत्मविश्वास कम हुआ। वो कभी समाज के बनाए रूढ़ीवादी नियमों को नहीं मानती थीं और हमेशा ग़लते के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाती थीं। उमाबाई ने तीन पुत्रियों और तीन पुत्रों को जन्म दिया।
एक बार छोटी सी उमाबाई, ताराबाई (छत्रपति राजाराम भोंसले) के महल में घूम फिर रही थीं। उन्होंने ताराबाई के शृंगार बक्से से एक ख़ास सोने के पायल निकाले और पहन लिए। येसाजी ने जब ये देखा तो तब उन्होंने उमाबाई से वो पायल उतारने को कहा। इसीलिए नहीं कि वो सोने के बने थे और उनके ग़ुम होने का डर था बल्कि इसीलिए को वो ख़ास पायल शाही खानदान की महिलाएं ही पहन सकती थीं, दाभाड़े वंश की नहीं। तभी उमाबाई ने ठान लिया था कि वो जीवन में ऐसे मक़ाम तक पहुंचेंगी जहां वो सिर उठाकर वो ख़ास पायल पहन सकें।
दाभाड़े कुल की बागडोर संभाली और रचा इतिहास...
1729 में उमाबाई के पति का देहांत हो गया। उनके सबसे बड़े पुत्र, त्रिम्बकराव दाभाड़े सेनापति बने। गुजरात से आने वाले चौथ और सरदेशमुखी टैक्स ही दाभाड़े कुल का राजस्व बढ़ाने का मुख्य साधन था। बाजीराव प्रथम ने जब गुजरात के कर वसूली का बीड़ा उठाया तब दाभाड़े कुल के लिए मुश्किलें बढ़ीं। बाजीराव प्रथम के साथ युद्ध में 1731 में त्रिम्बकराव का देहांत हो गया। उमाबाई के दूसरे पुत्र यशवंत राव की उम्र अभी कम थी, उमाबाई ने ख़ुद दाभाड़े वंश की बागडोर अपने हाथ में लेने का निर्णय लिया। वो मराठा सेना की पहली महिला सेनापति बनीं।
छत्रपति साहू को थी उमाबाई से सहानुभूति:
उमाबाई को छत्रपति साहू का समर्थन था और उन्हें उमाबाई से सहानुभूति थी क्योंकि 2 साल के अंदर उमाबाई ने अपने पति और अपने ज्येष्ठ पुत्र को खो दिया था। छत्रपति साहू के निर्देश पर पेशवा (मराठा साम्राज्य का प्रधानमंत्री) ने दाभाड़े वंश को चौथ टैक्स जमा करने देने के लिए राज़ी हो गये। लेकिन उनकी शर्त थी कि दाभाड़े आधी रकम पेशवा को दे। ग़ौरतलब है कि उमाबाई अपने बेटे के हत्यारे को माफ़ नहीं कर पाई थी और उन्होंने ये रकम अदा नहीं की। छत्रपति साहू ने उमाबाई के खिलाफ़ कोई कड़ा कदम नहीं उठाया। ये सिलसिला पेशवा की मृत्यु (1740) और 9 साल बाद छत्रपति साहू की मृत्यु तक चलता रहा।
जब राजाराम-II ने छत्रपति की गद्दी संभाली और बालाजी उनके पेशवा बने तब आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। ऐसे मौके पर दाभाड़े से बकाया रकम वसूलने का निर्णय लिया गया। उमाबाई ने ताराबाई से दरख़्वास्त की और दोनों महिलाओं के बीच एक गठबंधन बना। ताराबाई युद्ध चाहती थीं लेकिन उमाबाई इससे एकमत नहीं थी। वे पेशवा से मिलीं, बात चीत की और बताया कि टैक्स ज़बरदस्ती वसूला जा रहा और ये ग़लत है।
साथ आई 2 महिला योद्धाएं और कहानी आगे बढ़ीं...
एक बार उमाबाई और पेशवा से मिलने गई थीं और इसी दौरान ताराबाई ने छत्रपति को बंदी बना लिया। ये पहली बार था जब दो मराठा वीरांगनाएं एक साथ होकर पेशवा के सामने ढाल बनकर खड़ी हुई थीं...
जब उमाबाई को पता चला कि ताराबाई और पेशवा के बीच युद्ध होकर ही रहेगा तब वे ताराबाई की मदद करने के लिए दामाजी गायकवाड़ के नेतृत्व में सेना भेजी। पेशवा ने सेना को हराया और गायकवाड़ को बंदी बना लिया। पेशवा ने युद्ध क्षति की भरपाई के लिए उमाबाई से 25 लाख रुपये और आधे गुजरात की इलाका मांगा। गायकवाड़ ने पेशवा से रहम करने को कहा और पेशवा बालाजी ने उसे छोड़ दिया।
उमाबाई ने पेशवा का डंटकर सामना किया। पेशवा बालाजी ने गायकवाड़ को छोड़ दिया लेकिन एक महीने बाद ही सेना समेत गायकवाड़ और दाभाड़े वंश के अग्रणियों पर हमला कर दिया। पेशवा ने उमाबाई, यशवंतराव, सवई बाबूराव को बंदी बना लिया। दरअसल गायकवाड़ ने उमाबाई को धोखा दे दिया था और पेशवा से हाथ मिला लिया था। उसे गुजरात का नया मराठा सेनापति बनाया गया। उमाबाई अपना सबकुछ खो चुकी थीं लेकिन झुकने को तैयार नहीं थी।
1753 में पुणे में उमाबाई की मौत हो गई। उमाबाई भले ही पेशवा से हार गईं लेकिन उनका नाम, मराठा औरतों के लिए प्रेरणा बन गया। 18वीं शताब्दी में जब महिलाओं का कोई वजूद नहीं था, दो महिलाएं साथ आईं और पुरुषों के खिलाफ़ मोर्चा खोल दिया। उमाबाई खंडेराव दाभाड़े के जीवन पर एक मराठी फ़िल्म, 'भद्रकाली' भी आ गई है, फ़िल्म का टीज़र 2021 में रिलीज़ किया गया था...
"राष्ट्रहित सर्वोपरि" 💪💪
जय श्री राम 🙏
हर हर महादेव 🔱🙏🚩

0 Comments