भारत का ईंटों से बना प्राचीन मंदिर जो समय की मार से बच गया
कानपुर (उत्तर प्रदेश) से लगभग 50 किमी के फासले पर भीतरगांव स्थित है। यहां ईंटों का एक मंदिर (ब्रिक टेम्पल) है। आप कहेंगे कि ईंटों से बने मंदिर तो भारत के लगभग हर गांव में हैं तो भीतरगांव के मंदिर में ऐसा क्या खास है? मैं कहूंगा, बहुत कुछ है और इसलिए इसकी यहां चर्चा हो रही है। लेकिन यह विशेष क्यों है, इस बारे में तो थोड़ा रुक कर बतायेंगे। पहले इसके इतिहास के बारे में कुछ जान लीजिये।
1861 में लार्ड कैनिंग ने सर अलेक्जेंडर कन्निंघम को भारत सरकार का आर्कियोलॉजिकल सर्वेयर नियुक्त किया। हमें कन्निंघम को श्रेय देना चाहिए कि उन्होंने बड़े पैमाने पर भारत की निर्मित विरासतों को ढूंढा और उन्हें संरक्षित किया। सारनाथ (1837) व सांची (1841) में उन्होंने ही खुदाई करवाई थी। सन 1871 में कन्निंघम को आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया का पहला महानिदेशक नियुक्त किया गया।
इसके बाद फील्ड सर्वे की श्रृंखला आरंभ हुई जो दस्तावेजों के रूप में मौजूद है। गांगेय प्रांतों की रिपोर्टों 1875-76 व 1877-78 में कन्निंघम लिखते हैं कि उनके मित्र राजा रवि प्रसाद ने उन्हें कानपुर के निकट ब्रिक टेम्पल होने की जानकारी दी, जिसमें शानदार टेराकोटा कार्य किया गया था। नवम्बर 1877 व फरवरी 1878 के बीच कन्निंघम ने भीतरगांव के दो दौरे किये। गौरतलब है कि भीतरगांव प्राचीन शहर फूलपुर का हिस्सा रहा था। स्थानीय लोग इस मंदिर को सिर्फ देवल या मंदिर ही कहते थे। यह भारत का सबसे प्राचीन और शायद पहला ईंट मंदिर है, जो वक्त के तमाम थपेड़ों से बचा रह गया है। वास्तव में ईंटों से बनी इमारतें लम्बे समय तक नहीं रहती हैं। यह मंदिर बचा रह गया इसलिए भी यह विशेष है। हालांकि इसकी और भी खासियतें हैं।
बहरहाल कन्निंघम ने इस मंदिर को सातवीं शताब्दी का निर्मित बताया, लेकिन बाद के शोधों से मालूम हुआ कि यह गुप्तकाल यानी 5वीं शताब्दी का है। कन्निंघम के अनुसार 66 वर्ग फीट वाले इस मंदिर का पूर्व की ओर गोमुख है और इसके कोने खांचेदार हैं। कन्निंघम के सहायक बेग्लर ने 1878 में जो इस मंदिर की तस्वीरें ली थीं, उनसे मालूम होता है कि इसके प्रवेश पर एक छोटा सा हॉल था। फोटो में मंदिर टूटी हुई अवस्था में है। ऐसा इसलिए कि इस पर बिजली गिर गई थी, जिससे ऊपर का शिखर नष्ट हो गया था। कन्निंघम ने स्थानीय लोगों से वार्ता के आधार पर लिखा है कि 1857 की क्रांति से कुछ वर्ष पहले मंदिर पर बिजली गिरी थी लेकिन सही तिथि किसी को मालूम नहीं है। प्रवेश सीढ़ियों पर बनी बाहरी अर्धाकार महराब भी गिर गई है। सिर्फ गर्भगृह में जाने वाली बची है। गर्भगृह में प्रवेश से मालूम होता है कि अर्धाकार द्वार का यह प्रारम्भिक प्रयोगों में से एक है। लेकिन यह वास्तव में ईंटों से बनाई गई छद्म डॉट या मेहराब है, जिसमें ईंटें सिरे से सिरे पर नहीं रखी गई हैं बल्कि आमने सामने रखी गई हैं। कन्निंघम इसे ‘हिन्दू मेहराब’ कहते हैं। उनके अनुसार यह भारत के संदर्भ में विशेष है। यह वास्तविक मेहराब से इस अर्थ में भिन्न है कि उसमें खूंटे के आकार का चापशिला व त्रिकोण डाट का पत्थर होता है। वास्तविक डॉट बड़ी गुंबद को सहारा देती है। छद्म डॉट ऐसा नहीं कर सकती।
गर्भगृह खिड़की रहित 15 वर्ग फीट की जगह है, जिसमें कभी मूर्ति अवश्य रही होगी। कन्निंघम के अनुसार चूंकि मंदिर के पीछे वराह अवतार है, इसलिए यह संभवत: विष्णु मंदिर रहा होगा। मंदिर के गर्भगृह के ऊपर ऊंचे पिरामिड जैसा शिखर है। बाद में यह शिखर भारत में नागर मंदिर आर्किटेक्चर का स्टैण्डर्ड फीचर बन गया। मंदिर की दीवारें 8 फीट मोटी हैं, जिन्हें टेराकोटा मूर्तियों से सजाया गया है, जो ताकों में फिट पेनल्स पर हैं। अनेक मूर्तियां गिर गई हैं या खराब हो गईं हैं और उन्हें म्यूजियम में पहुंचा दिया गया है। बची हुई मूर्तियां साथ बैठे शिव व पार्वती, गणेश, आठ बांहों वाले विष्णु, महिषासुर मर्दिनी और पशुओं, पेड़ व पौधों की हैं। ‘द टेम्पल ऑफ भीतर गांव’ (1960) के लेखक मुहम्मद ज़हीर ने ऐसे 143 पेनल्स की गिनती की थी।
अब आते हैं इस बात पर कि यह मंदिर विशेष क्यों है? आर्किटेक्चर इतिहास अध्ययन के यह महत्वपूर्ण स्रोतों में से है, इसलिए इसे निर्मित विरासत कहते हैं। यह मानव व सभ्यता की प्रगति के बारे में बहुत कुछ बताता है। भारत में धार्मिक व अन्य इमारतें शिल्पकारों की कला, शासकों व समाज के रईसों के साधनों का साक्ष्य हैं।
खुदाई में मिले सिंधु घाटी सभ्यता के शहर बताते हैं कि भारत में शहरीकरण 2600 ईसा पूर्व में ही आरंभ हो गया था। तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से रॉक कट आर्किटेक्चर शुरू हुआ। हालांकि सबसे पहला रॉक-कट आर्किटेक्चर मौर्य युग से है, लेकिन अजंता गुफाएं प्रारम्भिक रॉक-कट मंदिरों में से हैं। मानव प्रगति के साथ नई तकनीकें भी आयीं, रॉक-कट मंदिरों की जगह पत्थर के मंदिर बनने लगे और चूंकि पत्थर हर जगह आसानी से उपलब्ध नहीं था, तो ईंट के मंदिर भी बनने लगे। गंगा पट्टी में कछारी भूमि है और पत्थरों व रॉक की कमी है, इसलिए ईंटों की इमारतों पर बल दिया गया। हालांकि पत्थर व रॉक के मंदिरों ने समय के थपेड़ों को बर्दाश्त कर लिया, लेकिन ईंट मंदिर इतने भाग्यशाली नहीं थे। यही वजह है कि भीतरगांव का प्राचीन ईंट मंदिर विशेष हो जाता है।
"राष्ट्रहित सर्वोपरि"
जय श्री राम
हर हर महादेव 🔱Ɽ𝖀𝖉𝖗𝖆

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